“क्या तुम मेरे बिना एक कदम भी चल पाओगे ? बड़े आये अकेले सफर तय करने वाले, अकेले रह नहीं सकते और पीछा छुड़ाने की बात करते हो।” अब अपनी हमसफर के आगे ज़नाब की जुबां कुछ और बोलती भी क्या, बस सुनते हुए ये सब, मुस्कुरा कर रह गए वहीं।
कुछ ही देर हुई थी थोड़ा सा शांति धारण किए, के मैडम फिर से शुरू हो गयी “रात भर बहुत आराम किया है, तो कुछ अब कसरत भी कर लीजिए” अब जनाब की कहाँ मजाल के मना कर दे, उठना ही पड़ा। साथ में निकल लिए दोनों पार्क की तरफ। बातें करते हुए एक दूसरे से, कुछ बुराइयां, कुछ चुगलियां, कुछ यादों के साथ आगे बढ़ते हुए पार्क के दो चक्कर कब पूरे हो गए पता भी नहीं चला। एक दूसरे का साथ देते हुए, कुछ हाँफते हुए पहुँच लिए फिर वापस अपने घर।
आराम के कुछ पलों बाद, भरी हुई दोपहर में जनाब को कुछ याद आया तो तैयार होने लगे निकलने के लिए पर उनकी हमसफर भी कहाँ उनको छोड़ने वाली थी, बोली “जाना तो मुझे शर्मा जी के यहाँ भी था, अब जा ही रहे हो तो साथ ले चलो, दोनों का काम हो जाएगा” इसपर थोड़ा झल्लाते हुए मना तो किए फिर पाँच मिनट बाद खुद ही चलने को बोल भी दिए। फिर क्या था, साथ निकल लिए फिर से दोनों।
वापस आते वक़्त सर जी को अचानक एक काँटा चुभा तो वो दर्द के मारे वहीं रास्ते में बैठ गए और तुरन्त मैडम ने काँटा बड़ी फुर्ती से निकाल फेंका, तो उनको एहसास हुआ कि आज जो ये साथ आने की जिद ना करतीं और साथ ना होती तो किसके सहारे चल पाते। इस पर अब मैडम भी अपने बखाने मारे बिना कहाँ चैन पाती बोल ही पड़ीं के “देखकर तो चल ही नहीं सकते ना थोड़ा, अब लगा ली ना, और मत लाते साथ तब पता चलता।” और फिर खुद ही प्यार से हाथ थामे ले आयीं, आख़िर एक दूसरे का उनके अलावा सहारा ही कौन था। इस पर सर जी को भी लग गया कि “सच में इनके बिना अकेले चलना अब जिंदगी में शायद मुमकिन नहीं” लड़खड़ाते हुए, सम्हालते हुए, कुछ साथ देते हुए एक दूसरे का, दोनों आ पहुँचे घर।
और फिर कुछ इस तरह दोनों ने ही इस एक खूबसूरत से दिन को विदा कर शाम की शांति में लीन होते हुए एक दूसरे से वादा किया की- “जैसे ये एक दिन गुजरा चाहे लड़ते-झगड़ते, सुनते-सुनाते ही सही, पर साथ और सहारा देते हुए, वैसे ही आखिरी पड़ाव तक ये उम्र भी गुज़रे।”
नश्वर तक साथ देते हुए ये – “एक जोड़ी जूते…”
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