ख्वाहिशों के पर लिए वो आसमाँ चाहता है,
जमीं पर आना तय है, फिर भी उड़ान भरता है।
सपने हज़ार लिए वो पल पल नई लौ जलाता है,
अपना बोझ लिये काँधों पर ख़ुद ही भार उठाता है।
घरवालों के मोह को अपनी ताकत बनाता है,
एक कमरे में ही फिर वो अपनी दुनिया बसाता है।
दाल-चावल, मैगी को वो अपना खाना कहता है,
रातों को जाग-जाग कर वो ख़ुद को रोज़ पकाता है।
मिलेगा जहां, मिलेगी मंजिल ऐसी आस लगाता है,
इसी उधेड़बुन में बस वो अपने सवाल सुलझाता है।
उम्मीद नहीं उसे किसी से वो खुद ही पग बढ़ाता है,
अपने घावों पर फ़िर वो ख़ुद ही मलहम लगाता है।
अपने भटके मन को वो खुद ही पार लगाता है,
बेवफ़ा हुए हैं लोग मगर फिर भी लाग लगाता है।
बेख्याल रहकर वो ख़ुद का हाल छुपाता है,
आँखोँ में नीर छुपा कर वो तस्वीरें गले लगाता है।
बढ़ते कदम मंजिल की ओर, उसे कौन रोक पाता है,
मान, ज्ञान और ईमान से स्वाभिमान को वो जगाता है।
पूछ उठेगी दुनिया एक दिन, क्या मुकाम पाया है ?
इसी जवाब में जान लगाकर इतिहास वो अपना रचाता है।
निश्छल प्रयास और लगन से मंजिल एक दिन पा जाता है,
इसी सफलता से फ़िर वो भविष्य अपना सजाता है।
आशीष लिए नये मुक़ाम-पथ पर फिर से कदम उठाता है,
गुरु, अपनों और माँ-बाप का वो ऐसे मान बढ़ाता है।
Nice…