मजबूरी में जो निकला घर से कुछ मजदूरी करने,
वही रह गया तकता देखो, इन हालातों में मरने।
रोज़ी-रोटी ने उसे कितना दूर करवाया है
बचपन के यारों ने आज उसे घर वापस बुलवाया है।
रौशनी शहरों की हो मुबारक शहर वालों को,
रात-चौपालें, गांव-बस्ती की बुलाती हैं अब उस को।
हवा बड़े शहरों की से अब ना दिल लगाना है,
खुशबू अपने खेतों की में अपना मन महकाना है।
हौसलों के भवँर में ख़ुद ही कश्ती चला रहा है,
बोझ अपना और परिवार का अपने काँधे उठा रहा है।
मजदूरी करके दिन-रात, जो कुछ उसने कमाया है,
इन हालातों में प्राण की ख़ातिर वो सब भी गंवाया है।
बस-रेल खफ़ा हैं आज, और सड़क भी अब रौंदेगी,
अपनी जान पर है भरोसा, जो पैदल ही घरोंदे पहुँचाएगी।
एक मुठ्ठी अनाज केवल चाहे वो अपने पेट में,
इसीलिए मिट्टी चाहता अपनी, मौत ना हो परदेस में।
कुछ शब्द राहत के, निकले हैं जो दिल्ली से आज,
रह ना जाएं केवल कागज़ पर, तभी सपने होंगे साज।
मौत के आगोश में लिपटा आज एक परिंदा है,
वो अपनी इकलौती मिट्टी का छोटा सा बाशिंदा है।
🤗🤗
Bhut sahi. Keep it up